
श्रीजन परियोजनाः चुनौतियां थीं पर हौसला नहीं खोया
गेल इंडिया के श्रीजन प्रोजेक्ट की नींव रखना कोई आसान काम नहीं था। मानवभारती संस्था के हर कार्यकर्ता के सामने बड़ी चुनौती थी कि उन लोगों से कैसे बात करें, जो छह माह बाद भी अपनी सुध बुध में नहीं हैं। हुआ यह था कि आपदा के बाद राहत के लिए तमाम सरकारी और गैरसरकारी संस्थाएं मौके पर जुट गई थीं। संस्थाओं ने पीड़ितों के भोजन, कपड़ों और रहने का इंतजाम किया। तुरंत रिलीफ के लिए जो कुछ किया जाना था, संस्थाओं ने किया।
आपदा से निपटने में पहाड़ के लोगों की हरसंभव मदद की कोशिश की, लेकिन सबसे अहम इस सवाल पर कम ही ध्यान दिया गया कि उस सदमे को कैसे बाहर किया जाए, जो अपने लोगों को खो देने से दिलोदिमाग पर हावी हो गया। आपदा में मिली इस पीड़ा के सामने भूख-प्यास कहीं पीछे छूट गए। उनके अपने लापता हो गए थे या फिर काल के गाल में समा गए थे। कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे। गेल इंडिया ने यह मान लिया कि इन हालात में शार्टटर्म रीलिफ प्रोग्राम से काम नहीं चलेगा। यहां दीर्घगामी योजना चलाने से ही जिंदगी को नई राह मिल सकेगी, क्योंकि आपदा में इनका सब कुछ खो गया है। सबसे पहले प्रभावितों को सदमे से बाहर निकालना होगा, ताकि ये फिर से जीवन की शुरुआत कर सकें।
श्रीजन परियोजना की कोआर्डिनेटर शाहिस्ता खान बताती हैं कि गेल इंडिया की दीर्घगामी पुनर्वास परियोजना की शुरुआत के लिए मानवभारती ने जनवरी, 2014 में अगस्त्यमुनि में 15 सदस्य टीम भेजी। हम सभी दिमागी तौर पर इस बात के लिए तैयार थे कि मुश्किलें कितनी भी हों, लेकिन हार नहीं मानेंगे। कई गांवों तक जाने वाले रास्ते बंद थे। किसी तरह गांवों में पहुंचते तो वहां लोग बात करने से मना कर देते। कई घरों में महिलाएं सदमे में थीं।

रुद्रप्रयाग जिले में आपदा से ऐसे हो गए थे हालात। (File Photo) Photo@ Shrijanpariyojna
शाहिस्ता का कहना है कि कुछ घरों में सन्नाटा पसरा था। वहां केवल महिलाएं ही बची थीं। रुद्रप्रयाग के इन गांवों के अधिकतर परिवारों की आजीविका केदारनाथ यात्रा पर निर्भर थी और घरों के पुरुष और बच्चे आपदा के समय केदारनाथ में थे। कोई वापस लौट आया और कोई नहीं। बड़ा मुश्किल था, इन महिलाओं से बात करना। हमारी कोशिश के बाद ये महिलाएं कुछ बोलने को तैयार नहीं थीं और कई बार तो रोने लगतीं थीं। हमारे बार-बार गांव जाने पर कुछ लोग विरोध करने लगे। कई बार स्थिति तनावपूर्ण हो जाती, लेकिन हमें सिखाया गया था कि कोई कितना भी कुछ बोले, जवाब नहीं देना, शांत रहना, क्योंकि आप लोग उनकी मदद के लिए जा रहे हो। गांववालों का कहना था हम लोग खुद से कर लेंगे, तुम्हारी कोई मदद नहीं चाहिए। यहां पहले भी बहुत लोग मदद के लिए आ चुके हैं और कुछ दिन बाद चले गए। तुम्हारे सर्वे से हमारा क्या होगा, क्या फिर कोई आपदा नहीं आएगी। हमें हमारे हाल पर छोड़ दो। ये भी पढ़ें- रुद्रप्रयाग में श्रीजन परियोजना का पहला कदम
शाहिस्ता कहती हैं कि वो अपनी जगह सही थे, लेकिन हम उनको एक या दो दिन या कुछ महीने के लिए सहयोग करने के लिए नहीं गए थे, हम तो उनको क्षमता विकास के जरिये आजीविका के लिए आत्मनिर्भर बनाने, उनको आर्थिक रूप से मजबूत बनाने तथा आपदा को लेकर जागरूक बनाने के इरादे से गए थे, इसलिए हम भी अपनी जगह सही थे। कई बार हालात ऐसे बन गए कि शाम होते ही श्रीजन टीम के कुछ सदस्य, यह तक कहने लगे कि वापस चलो। लेकिन फिर नई सुबह उनमें यह आस बंध जाती थी कि कोई बात नहीं आज फिर गांववालों से बात करते हैं, वो हमें जरूर सुनेंगे। लगातार प्रयास जारी रखते हुए हमने हर गांव में जनप्रतिनिधियों और स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ बैठकें कीं और उनसे गेल इंडिया से वित्त पोषित श्रीजन परियोजना की पूरी रणनीति पर चर्चा की। ये लोग तैयार हो गए और फिर इसके बाद श्रीजन प्रोजेक्ट ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आज रुद्रप्रयाग जिले में आपदा प्रभावितों के पुनर्वास और उनकी आजीविका संसाधन के विकास की सबसे बड़ी मिशाल बन गया। श्रीजन परियोजना : आपदा के अंधेरे से समृद्धि के उजाले की ओर…
शुरुआत से ही श्रीजन परियोजना से जुड़े हिकमत सिंह रावत बताते हैं कि आपदा प्रभावित गांवों में लोगों को बैठकों के लिए बुलाया गया, लेकिन वो नहीं आए। हमने हिम्मत नहीं हारी और बैठकों के लिए घर-घर सूचना देते रहे। जनप्रतिनिधियों के सहयोग कुछ ही लोग पहुंचे और महिलाएं नहीं आईं। बताया गया कि महिलाएं बाहर से आने वाले लोगों से बात नहीं करतीं। हमारी टीम शामिल में महिलाओं ने घर-घर जाकर आपदा प्रभावित महिलाओं से बात की। धीरे-धीरे हमारी टीम पर लोग विश्वास करने लगे और महिलाएं भी बैठकों का हिस्सा बनने लगीं। आज हमारी टीम गांववालों के लिए पारिवारिक सदस्यों की तरह हैं। आज स्वयं सहायता समूहों से जुड़कर महिलाएं सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर बात करने में सक्षम हैं और बैठकों से लेकर बैंक तक के सभी कामकाज स्वयं करती हैं। शाहिस्ता बताती हैं कि प्रोजेक्ट का सबसे पहला काम लोगों को सदमे से बाहर निकालना था। इसके लिए मानवभारती संस्था के निदेशक व मनोवैज्ञानिक डॉ. हिमांशु शेखर और मनोवैज्ञानिक डॉ. रीतू शर्मा ने आपदा प्रभावित इलाके में जाकर महिलाओं व बच्चों की कई दौर की काउंसलिंग की। धीरे-धीरे ही सही पर जीवन एक बार भी पटरी पर आने लगा। परियोजना अपनी गति पकड़ने लगी।